हम कई बार यह मान लेते हैं कि जो बात हमारे नेतृत्व द्वारा कही जाती है वही सही है, पर जब कोई सदस्य हिम्मत कर उनसे यह प्रश्न कर लेते है तो उनका जबाब न सिर्फ आक्रोश से भरा होता, पुछने वाला सदस्य मंच का दुश्मन माना जाने लगता है। यह बात सही है कि इन तथाकथित नेतृत्व वर्ग को कहने का पुरा अधिकार है चुंकि उनके पास नेतृत्व करने की क्षमता रहती है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि मंच के दूसरे सदस्यों के पास कोई योग्यता ही नहीं। मंच संदेश में प्रकाशित एक लेख पर हुए विवाद पर अपनी ओर से सकारात्मक (?) प्रतिक्रिया देने कि वजाए इन्होने प्रश्न उठाने वालों को ही नकारात्मक ठहरा दिया है। सुना गया है कि इस मुद्दे पर उनका कहना है कि वे नकारात्मक दृष्टि नहीं रखते, ना ही वे नकारात्मक प्रश्नों का उत्तर देना जरूरी समझते हैं।
जी! श्री प्रमोद जी शाह के प्रति हमारे मन में काफी श्रद्धा है, पर इस श्रद्धा का अर्थ यह तो नहीं निकलता कि कोई प्रश्न जब उनसे किया जाये तो वे नकारात्मक दृष्टिकोण अपनायें।
आईये जो व्यक्ति यह बात कहता है कि वे नकारात्मक पहलु पर कोई बात नहीं सोचते, लिखते और कहते हैं।
देखिये इनके सकारात्मक दृष्टि की एक झलक*:
* [संदर्भ: मारवाड़ी सम्मेलन "चिन्ता एवं चिन्तन" लेखक- प्रमोद शाह]
- 1. सम्पादक महोदय जी बड़े आदर के साथ पूछता हूँ कि क्या अर्थ है महाकुम्भ का? उस अधिवेशन में 50 प्रतिनिधि बमुश्किल पहुंचे थे पदाधिकारियों के अतिरिक्त। वह महाकुम्भ था मारवाड़ी समाज का?
- 2. अभी कानपुर में ही सम्मेलन का अधिवेशन हुआ। सम्मेलन के एक प्रन्तीय अध्यक्ष ने सर्वोच्च पदाधिकारियों से कहा कि युवा मंच के निवर्तमान राष्ट्रीय अध्यक्ष व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष सभागार में उपस्थित हैं, उनमें से किसी एक को मंच पर बुला लें। उन्होंने साफ इंकार कर दिया। मंच पर कैसे बुलाते? उन्होंने तो आमंत्रित किया नहीं था, वे दोनों मारवाड़ी सम्मेलन के सदस्य की हैसियत से आये थे। अब आ गये तो क्या करें? आए उनकी बला से।
- 3. सम्मेलन में अपने अग्रज के चुनाव पर इनके क्या विचार थे जरा ये भी देखें:
" स्वयं लेखक ने बिहार प्रांतीय अध्यक्ष से कहा कि चुनाव होने दीजिए, यह तो होता ही है संस्थाओं में।"
- 4. जिस तरह कोई शुभ कार्य आरम्भ होने के पहले बिल्ली रास्ता काट जाए, या कोई छींक दे, वैसे ही अपशगुन होने लगे थे। सम्मेलन के सर्वोच्च पदाधिकारियों का मुलम्मा उतरने लगा था। उनकी नीयत पहले से ही साफ नहीं थी, एक नकाब ओढ लिया साथ-साथ चलने का, वह उतर रहा था।
- 5. यूं गणतांत्रिक व्यवस्था के अपने तौर तरीके हुआ करते हैं। इस प्रणाली में जहां पारस्परिक संवाद और विचारों की अभिव्यक्ति को उसके मजबूत स्तम्भ माने गए हैं वहीं डेमोक्रेसी के स्वरूप को बचाए रखने के लिये आंदोलन व कानून का सहारा लेना भी इसका आवश्यक अंग माना गया है। जहाँ तक हो ऐसे कदम से बचना चाहिये। लेकिन जहाँ तथ्यों और विवेकशीलता को महत्व न दिया जाए, जहाँ संवेदनशीलता समाप्त हो जाए, संवादहीनत हो, कोई स्पंदन न हो, और संविधान को ताक पर रखा जा रहा हो वहां अन्ततः आंदोलन या अन्य विकल्प की ओर न चाहकर भी बढ़ना पड़ता है।
दोस्तों जब यही घटना किसी ओरों के साथ घटती है तो हमारे सोच में परिवर्तन इस बात को दर्शाता है कि सिद्धान्त की बात करने वाले इस तरह के तथाकथित नेतृत्व के आदर्श कितने खोखले हैं। ... क्रमश.....
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