गुरुवार, 23 अक्टूबर 2008

कुछ करने निकलते हैं कुछ हो जाता है

बंधुओ, अचानक इस तरफ ध्यान गया कि हम कुछ करने निकलते हैं और कुछ हो जाता है। समाज किस तरफ चल पड़ेगा यह जानना कोई आसान काम थोड़े है। मसलन, कभी दहेज के विरुद्ध और लड़के वालों की मनमानी के विरुद्ध काफी कुछ कहा जाता था, लड़की वाले उनसे त्रस्त रहते थे। दहेज विरोध से कुछ हासिल नहीं हुआ, लेकिन परिवार नियोजन का यह नतीजा सामने आया कि लड़के वालों की दादागिरी बंद हो गई।

ध्यान इस बात पर भी गया कि मारवाड़ी युवा मंच जैसे संगठन सबसे ज्यादा पूर्वी भारत में ही क्यों पनपे। तो इसका कारण यह निकल कर आया कि दरअसल इसके मूल में असुरक्षा की भावना है। जहाँ जितनी ज्यादा असुरक्षा थी वहीं मारवाड़ियों के अलग संगठन उतने ही मजबूत हुए। आज लगभग दो दशकों से मारवाड़ियों के विरुद्ध कोई वैसी हिंसा आदि की बात देखने को नहीं मिली इसीलिए मंच जैसे संगठनों की लौ भी धीमी पड़ती गई।

देखना है कि आज कोई क्राइसिस यानी संकट आ जाए, जैसे मुंबई में बिहार, यूपी के भाइयों पर आया है, तो क्या हमारी आवाज को सशक्त तरीके से उठाने में सक्षम नेतृत्व और कार्यकर्ता हमारे पास हैं?

मंच का नेतृत्व अपने सारे अनुभवों को लेकर क्या सचमुच पिच से बाहर हो जाएगा और कहीं भजन मंडली की अध्यक्षता या कहीं वार्ड कमिश्नरी प्राप्त करने के लिए लालायित दिखाई देगा? मंच को अब इस बात पर सोचना चाहिए कि संकट के समय मजबूती से खड़ा हो पाने के लिए उसे एक समानांतर संगठन खोलना चाहिए या नहीं।

आपका, विनोद रिंगानिया

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