निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटी छबाये।
बिन पानी साबून बिना, निर्मल करे सुभाय- कबीर
दीपावली की आप सभी को शुभकामनाएँ। सन् 1985 मंच के स्थापना काल से लेकर आजतक मंच के साथ मेरा आत्मीय संबंध रहा है। उत्साही युवकों को मंच से जोड़ना, उनके मन में समाज व परिवार के लिये जिम्मेदारियों का बोध कराना पहला ध्येय रहा। मंचकाल में सैकड़ों नये-नये चेहरों/ व्यक्तित्व से संपर्क हुए। बहुत कुछ खोया और बहुत पाया भी। लोगों को मेरे खिलाफ मिठाईयाँ बांटते देखा, मेरे और श्री संतोष कानोडिया-हवड़ा के संयुक्त एक निर्णय पर उड़िसा प्रान्त के कुछ यवकों ने हमें फांसी की सजा दे डाली, दिपावली व नव-वर्ष के अवसर पर कार्ड में हमारी फांसी पर झूलती हुई तस्वीर छपवा कर सारे शाखाओं में वितरित किये गये। कोलकाता में कई जन आन्दोलनों को नेतृत्व प्रदान किया, जिसकी चर्चा हिन्दुस्तान भर के समाचार पत्रों में हुई, मंच को लोग जानने लगे। मारवाड़ी युवा मंच का नाम गांव-गांव में पहुँच गया। विवाह के एक दिन पूर्व ही झाड़सूंखड़ा में उड़ीसा प्रान्त के गठन की प्रक्रिया पुरी करने चल दिया था, असम में जब मारवाड़ी समाज पर उल्फा वाले हमला कर रहे थे, उस समय एक तरफा लेखों का कोलकाता के समाचार पत्रों में प्रकाशन कर संसद तक समाज की बात को पहुँचाने जैसे कई आपराध मैंने किये थे। जिसकी सजा मुझे मंच ने जी भर के दिया। जब इस ब्लॉग पर मेरे सदस्य यह बात कर रहे थे कि "निंदक नियरे राखिये" लिखे तो एक बार तो सोचने लगा कि शायद मेरे लेख में कहीं कोई बात है जो 'निंदक' का स्थान ले रही है। दोस्तों दो बातें हैं:
[1] निंदक
[2] विद्रोह
पहले इस बात को स्पष्ट कर लें कि इन दो शब्दों की क्या विशेषता है।
निंदक: निंदक को हिन्दी साहित्य में साहित्यिक स्थान प्राप्त है, जिसे 'आलोचना' शब्द से वर्गीकृत किया गया है। आमतौर पर कई शोधार्थी छात्रों को महान व्यक्तियों के आलोचनात्मक शोध का विषय दिया जाता है, जो बहुत ही कठीन विषय होता है। आमतौर पर ये विषय काफी कठीन होता है। कारण की किसी व्यक्तित्व के विषय में कुछ जानकारी करना बहुत आसान होता है, पर उसका निंदक होने का अर्थ होता है उसे पहले अच्छी तरह से पढ़कर उस व्यक्ति या संस्था के विषय में अधिकृत जानकारियां एकत्रित कर ही कोई निंदक या आलोचक बन सकता है, कई बार निंदक साकारात्मक पहलु को ही उठाते हैं तो कई बार इनके तैवर आक्रणात्मक भी होतें हैं।
विद्रोह: विद्रोह को समग्र रूप से देखा जाता है, जिसमें शोध का स्थान विद्रोह करने के बाद ही हो सकता है, यह प्रक्रिया आम तौर पर राजनीतिक होती है।
दोस्तों ! हम समाज के दर्द को समझने में 23 साल लगा दिये। मानो हमें समाज के दर्द से कोई वास्ता ही नहीं रहा, 'आत्म सम्मान', 'समाज सुधार', सदस्यों की प्रतिभाओं का विकास नग्णय सा हो चुका है, मंच के समर्पित कार्योंकर्ताओं, जैसे मुजफ्फरपुर के ही श्री रामजी भरतीया, असम के श्री रामजीवन सुरेका जैसे कई साथियों को हम भुला चुके हैं इनका दोष क्या था -क्या ये मेरे जैसे चतुर या चालाक नहीं थे, इसलिये इनको मंच ने भुला दिया। यदि मेरे जैसे ये भी चालाक होते तो अपना नाम भी मंच के इतिहास में बार-बार खोदते ओर दूसरों का नाम मिटाते रहते। दोस्तों! मुझे इस बात का कष्ट है कि हमने मंच में इतने योग्य व्यक्तियों का चुनाव किया कि गत 20 सालों में 20 नये योग्य युवकों को भी सामने आने नहीं दिया, जो समर्पित कार्यकर्ता थे, उसकी जगह कुछ निहित स्वार्थलिप्त सदस्यों को स्थान जरूर मिला। मंच के अन्दर नये युवकों का प्रवेश कम होता गया, पुराने की उम्र सीमा समाप्त ही नहीं हो रही। 50-50 के अभी भी पदाधिकारी बनने की कतार में लगे हुए हैं। जब भी कोई चुनाव का वक्त आता है, मंच का परिवेश बदला-बदला सा नजर आने लगता है। मंच में यदि एक पद के लिये एक या एक से अधिक उम्मिदवार अपना नामांकन दाखिल करते हो तो इसमें हर्ज ही क्या? चुनाव की प्रक्रियाओं को पिछले दरवाजों से प्रभावित करने का प्रयास तेज क्यों हो जाता है?
दीपावली की एक बार पुनः शुभकामनाओं के साथ।
शम्भु चौधरी
शम्भूजी नमस्कार, निंदक और द्रोही की परिभाषा किसी भी शंस्था में अलग अलग से परिभाषित होती है. समाज सुधर और व्यक्ति विकाश की अलख अभी बुझी नही है. आपका लिखना सही है. बधाई.
जवाब देंहटाएंरवि अजितसरिया